रविवार, 8 अगस्त 2010

रौशनी    की   चाह  
ज़िन्दगी में हर  किसी  को  रौशनी की  चाह   है
फिर जला हो घर या दीपक ये किसे परवाह है .

है बदी जितनी  लिखी  है  रौशनी    उतनी  मिले ,
रात चमकीली अगर तो दिन बहुत ही स्याह है .

मोंम  तो पिघला किये  है लौ  मगर  बुझती   नहीं,
 जो किसी  की है ख़ुशी वो ही किसी की आह है .

राह  फूलों  से  सजी  हो  या   डगर   काँटों     भरी ,
जा मिले मंजिल तलक  जो   बस वही तो राह है

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ,क्या ख़ूबसूरत कविता से आपने अपने ब्लॉग का आगाज़ किया है ;इस साहित्यिक दुनिया में आपका स्वागत है. " इतनी बात ज़रा सी" ? क्या क्या नहीं है इसमें .....प्यास .उदासी ,संवेदना और सपने ..............क्या बात है ! आपके सभी सपने पूरे हों ,आपका कलाम सबके लबों पे सजे ,इन्हीं दुआओं के साथ
    आपकी दोस्त .........'हया'

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  2. neeraj goswami said...
    सबसे पहले तो आपका ब्लॉग जगत में स्वागत है...आपने धमाके दार प्रवेश किया है अपनी इस लाजवाब कविता के साथ...आप को पढने की प्यास बढ़ गयी है....उम्मीद है आने वाले वक्त में भी आपकी कलम के खुशगवार कलाम से हम ऐसे ही रूबरू होते रहेंगे...

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