बुधवार, 11 अगस्त 2010

 राज़ की बातें
राज़  की  बातें   हैं  तुमसे   कह  रही   हूँ
सुन सकोगे मैं तो  कबसे  सह     रही   हूँ

एक मुकम्मल सी ईमारत दिख  रही   हूँ
पर  कहीं  भीतर ही  भीतर     ढह  रही  हूँ

है  हवाओं की   ज़मीं   बादल   की  छत है 
मुद्दतों से जिस    मकां  में   रह   रही   हूँ

न  कोई  पतवार  जिसकी  न   ही    माझी
इक   उसी  नैया  की  मानिंद  बह रही  हूँ

ओढ़ कर  गहरे तिमिर  की   एक   चादर  
रौशनी को खुद हवन सी   दह    रही    हूँ

6 टिप्‍पणियां:

  1. ख़ूबसूरत आगाज़ ,ख़ूबसूरत ब्लॉग ,ख़ूबसूरत कलाम . .

    जवाब देंहटाएं
  2. है हवाओं की ज़मीं बादल की छत
    मुद्दतों से जिस मकां में रह रही हूँ

    क्या कहूँ...बेजुबान कर दिया आपने...ऐसा शेर कोई उस्ताद ही लिख सकता है...इस नायाब ग़ज़ल पर मेरी दिली दाद कबूल करें...

    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह ! हर शेर कमाल का ! वाकई निःशब्द कर दिया आपने !
    ओढ़ कर गहरे तिमिर की एक चादर
    रौशनी को खुद हवन सी दह रही हूँ
    बहुत अच्छा लगा ये शेर...! आभार !!

    जवाब देंहटाएं
  5. शुक्रिया लता,नीरज जी आप दोनों की सराहना का बहुत बहुत शुक्रिया...

    जवाब देंहटाएं
  6. नरेन्द्र जी आपको ग़ज़ल अच्छी लगी बहुत बहुत शुक्रिया..

    जवाब देंहटाएं