सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

जब शाम गहन छा जाती है
अँधियारा कुछ  गहराता  है
तब  धीरे धीरे मन वीणा  के  तार
कोई सहलाता है

सारा जग निद्रा मगन हुआ
तारों से जगमग गगन हुआ
जब चाँद,  व्योम  से  झांक
चांदनी  झिर झिर झिर बरसाता है
तब धीरे धीरे मन वीणा के तार
कोई सहलाता है

साँसों की सरगम मधुर बजे
इस पल, इस पर हर तान सजे
जब ह्रदय मयूरा झूम झूम के
गीत प्यार के गाता है
तब धीरे धीरे मन वीणा के तार
कोई सहलाता है

वो शीतल मंद बयार चले
गुन गुन भंवरों की कतार चले
जब पुष्प, रंग रस लिए
देख भंवरों को यूँ मुस्काता है
तब धीरे धीरे मन वीणा के तार
कोई  सहलाता है

3 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय अर्चना जी..
    नमस्कार
    कोमल भावों से सजी ..
    ..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
    आप बहुत अच्छा लिखती हैं...वाकई.... आशा हैं आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा....!!

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  2. कभी लोरियां
    तो कभी चांदी की कटोरियाँ
    बन कर गुदगुदाने वाली बेटियाँ
    वक़्त आने पर जब
    मां के हाथों को थाम
    उनके कमज़ोर पैर के नीचे का आधार बनती हैं
    तो हो जाती हैं ज़मीन
    और जब
    पिता के सीने में गर्व बन
    उन्हें ऊंचा उठा देती है तो आसमां होती हैं
    बेटियाँ सिर्फ बेटियाँ कहाँ होती हैं

    बहुत खूबसूरत

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