गुरुवार, 30 जुलाई 2015



मैं अपनी राह चलती  हूँ मैं अपनी राह पे  चल  के
करूंगी तय सफर अपना सफर की आग में जल के

ये माना है डगर मुश्किल मगर मैं क्यूँ भला  ठहरूं
महकते फूल  भी कितने यहां काँटों में ही पल के

मैं चुप हूँ या परेशां  हूँ  की  सोयी हूँ  यक़ीं   ये  है
उठूँगी  जल्द ही इस नींद से आँखों को  मैं मल के

कि कहना और सुनना  ही किसी से  क्यों ज़रूरी हो
वो कैसा ग़म ख़ुशी भी क्या कि  जो आँखों से न झलके

मैं अपने आप में इस आज के एक पल में जीती हूँ
मुझे क्यों फ़िक्र हो दामन में क्या होगा भला कल के 

3 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी लगी यह कविता। मन के गहरे भाव को सामने किया गया है, ऐसा लगता है।

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  2. शुक्रिया भास्कर जी ,
    कवितायें तो मन के भाव ही समेटे होती हैं

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  3. शुक्रिया भास्कर जी ,
    कवितायें तो मन के भाव ही समेटे होती हैं

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