आप सभी को दशहरे की ढेर सारी बधाइयां
इस अवसर पर प्रस्तुत है मेरी नई कविता "सीता की अग्निपरीक्षा "
इसको मैंने दो दृष्टिकोणों से देखने की कोशिश की है सीता के दृष्टिकोण से
और राम के दृष्टिकोण से .यहाँ प्रस्तुत है ये कविता और दोनों दृष्टिकोण भी.
सीता की अग्निपरीक्षा (सीता का दृष्टिकोण )
हे सीता
मैं जानती हूँ ,तुम्हारी पीड़ा ,तुम्हारा संताप
और पहचानती हूँ
तुम्हारे अन्दर तक टूट टूट कर बिखरती हुई तुम को
कैसा लगा होगा तुम्हे
जब तुम्हारे ही राम ने
तुम्हारी निष्ठा ,तुम्हारे विश्वास और समर्पण पर
प्रश्नचिन्ह लगा ,तुम्हे अग्निपरीक्षा का आदेश दिया होगा
सती पत्नी ने अपने पति के ही दिए हुए विष का घूँट
आखिर कैसे पिया होगा
अरे इससे तो अच्छा था वो रावण
जो तुम्हारे सतीत्व के तेज से सिहर गया
तुम्हारी उपस्थिति मात्र से
जिसके अन्दर का रावण मर गया
वो जीतना चाहता था तुम्हे ,भीतर से
इसीलिये उस कथित राक्षस ने तुम्हे नहीं छुआ
और तुम्हारे राम को इसका आभास तक नहीं हुआ
हाँ, तुम्हारे पति राम
जिनके लिए तुमने पतिव्रत रीत निभाई
जिनकी पीर बांटने तुम बन बन चली आयी
तुम्हारे उन्ही पतित पावन राम ने
अहिल्या को तो पाषाण से स्त्री बना तार दिया
और अपनी ही स्त्री को शंका के तीर चला
जीते जी मार दिया
काश एक बार, सिर्फ एक बार
उस दिव्य दृष्टा ने
तुम्हारी आत्मा में झाँका होता
तन के बजाय ,तुम्हारे मन को आंका होता
तो जो हुआ वो न होता
रामायण का एक अध्याय ,बदला हुआ होता
हे सीता मैं जानती हूँ
तुम्हारी पीड़ा,तुम्हारा संताप
और पहचानती हूँ
अन्दर तक टूट टूट कर बिखरती हुई तुम को .................
सीता की अग्निपरीक्षा )
(राम का दृष्टिकोण)
हे सीता
मैं जानती हूँ तुम्हारी पीड़ा ,तुम्हारा संताप
और पहचानती हूँ
अन्दर तक टूट टूट कर बिखरती हुई तुम को
कैसा लगा होगा तुम्हे
जब तुम्हारे राम ने
तुम्हारी निष्ठा,विश्वास और समर्पण पर प्रिश्न चिन्ह लगा
तुम्हे अग्नि परीक्षा का आदेश दिया होगा
तुमने तो परीक्षा दी
और उसमे खरी भी उतरीं
साथ ही पूरा कर दिया एक अधूरे काम को
दे दिया एक और बनवास अपने पति राम को
पत्नी विहीन,प्रियाविहीन राम
ये बनवास तो जीवन भर उनके साथ रहा
आखिर क्या उनके हाथ रहा
तुम जानती हो
जिन्होंने तुम्हारी परीक्षा ली
वो तुम्हारे राम नहीं थे
वो तो धोबी के राम थे
अयोध्या की प्रतिष्ठा व मान थे
क्या होगी वो परिस्थिति
कैसी रही होगी उनकी मनस्थिति
जब उन्हें चुनना पड़ा होगा
राजा और पति में से एक को
एक तरफ फ़र्ज़ एक तरफ धर्म
शायद उन्हें धर्म से बड़ा लगा होगा फ़र्ज़
इसीलिये उतार दिया राजा होने का क़र्ज़
पर तुम्हारे पति राम
वो तो सुलगते रहे सारा जीवन एक अग्नि में
पश्चाताप की अग्नि
सहते रहा विरह का ताप
करते रहे सीते सीते जाप
जिसे ढूँढने मैं लगा दिया जीवन
उसी के बिना जीवन
कितना जला होगा उनका मन
तुम सती थीं तो उनमे भी नहीं था कम सत
उन्होंने नहीं तोडा एक पत्नी व्रत
बहुत अच्छी प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .
बहुत अच्छी प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
हम तो आपकी भावनाओं को शत-शत नमन करते हैं.
............प्रशंसनीय रचना।
मेरी हौसला अफज़ाई के लिए आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअशोक बजाज जी, संजय भास्कर जी रचना आपको पसंद आयी ,बहुत बहुत आभार ,शुक्रिया
जवाब देंहटाएंप्रणाम !
जवाब देंहटाएंआपकी रचना स्वयं प्रश्न है और स्वयं ही उत्तर.....दोनों पक्षों की मनः स्तिथि का तटस्थ चित्रण किया है आपने......
गत माह आपने उत्साह बढाया था......धन्यवाद!
एक और रचना प्रस्तुत है.....कृपया मार्गदर्शन करें ..
http://pradeep-splendor.blogspot.com/2010/09/blog-post.html
धन्यवाद प्रदीपजी,आभार ....
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