मंगलवार, 25 अगस्त 2015

वो कभी थरथरा के जलती है
तो कभी फड़फड़ा के
कभी भरभरा के जलती है
 तो कभी कंपकंपा के
पर जलती है उसी आन बान  और शान से
जबकि उसे भी मालूम है  की वो
 पिघल पिघल कर ख़त्म हो रही है
उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा
और तब उसके साथ साथ
 उसके चारों तरफ के लोग भी अँधेरे में डूब जाएंगे
पर वो कुछ नहीं कर सकती
ना जलना छोड़ सकती है
ना पिघलने को रोक सकती है
क्योंकि जलना उसका धर्म है
और पिघल कर ख़त्म हो जाना उसकी नियति
एक मोमबत्ती  और कर भी क्या सकती है 

गुरुवार, 30 जुलाई 2015



मैं अपनी राह चलती  हूँ मैं अपनी राह पे  चल  के
करूंगी तय सफर अपना सफर की आग में जल के

ये माना है डगर मुश्किल मगर मैं क्यूँ भला  ठहरूं
महकते फूल  भी कितने यहां काँटों में ही पल के

मैं चुप हूँ या परेशां  हूँ  की  सोयी हूँ  यक़ीं   ये  है
उठूँगी  जल्द ही इस नींद से आँखों को  मैं मल के

कि कहना और सुनना  ही किसी से  क्यों ज़रूरी हो
वो कैसा ग़म ख़ुशी भी क्या कि  जो आँखों से न झलके

मैं अपने आप में इस आज के एक पल में जीती हूँ
मुझे क्यों फ़िक्र हो दामन में क्या होगा भला कल के 
मैंने  अपना नज़रिया ही बदला ज़रा फिर तो  सारा  नज़ारा यूँ  बदला कि बस
ऐसा क्यूँकर हुआ वैसा क्यूँ  ना  हुआ  सोचने  का  ही  धारा  यूँ  बदला कि   बस

मैं ख्यालों में अपने ही डूबी थी जब  मुझको  लगती  थी दुनिया बुरी  ही  बुरी
मैंने  आँखों  से चश्मा उतारा ज़रा  पानी  मीठे में  खारा  यूँ  बदला  कि बस

उसकी जिद  इम्तेहां  वो लिए  जायेगी  जीतने  की भी  मैंने  थी खायी कसम
ज़िन्दगी से  ज़रा  दोस्ती  मैंने की ग़म ख़ुशी  में वो सारा यूँ  बदला  कि बस

मुझमे है एक मैं तुम में है एक तुम तुम और मैं का ये  खेला  चला  आ  रहा
साथ की जब अहमियत पता चल गयी हम में  मेरा  तुम्हारा यूँ बदला  कि  बस

सबके हाथों  में पत्थर भी देखे थे और मेरा  घर भी तो शीशे का ही  था बना
वो  ही शीशा  जो  मैंने  दिखाया  उन्हें  पत्थरों  का इशारा यूँ  बदला कि बस