शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

तुम .......
तुम...
तुम मेरे लिए क्या हो
तुम मेरे लिए हो 
कुछ से लेकर सबकुछ तक
एक बिंदु से लेकर एक वृहद  रेखा तक 
स से सा तक 
तुम हो
प्रणय गीत,विरह गान 
जीवन के इस छोर से उस छोर तक सारे आयाम 
तुम अश्रु हो,मुस्कान हो
मेरी उलझन  भी हो मेरा मान हो 
तुम्ही शीतलता हो 
तुम्ही अधरों की प्यास हो
तुम्ही भ्रम हो, तुम्ही गहन विश्वास हो 
तुम श्रृष्टि की स्वर लहरी हो 
प्रलय का अट्टहास हो 
ये खुली धरती वो फैला आकाश हो 
तुम ही तुम हो मेरे लिए 
इस सीमा से उस सीमा तक
 तुम ही तुम, बस तुम 
क्या क्या हो तुम 
कैसे बताऊँ तुम्हे 
अपनी सोच के दायरे में 
कहाँ बिठाऊँ तुम्हें
तुम मेरे लिए हो 
कुछ से लेकर सब कुछ तक  

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

नमस्कार,
 आप सभी को दशहरे की ढेर सारी बधाइयां
इस अवसर पर प्रस्तुत है मेरी नई कविता "सीता की अग्निपरीक्षा "
इसको मैंने दो दृष्टिकोणों से देखने की कोशिश की है सीता के दृष्टिकोण से
और राम के दृष्टिकोण से .यहाँ प्रस्तुत है ये कविता और दोनों दृष्टिकोण भी.
                                                                                                                                                                        
सीता की अग्निपरीक्षा        (सीता का दृष्टिकोण )


हे सीता
मैं जानती हूँ ,तुम्हारी पीड़ा ,तुम्हारा संताप
और  पहचानती  हूँ   
तुम्हारे  अन्दर तक टूट टूट कर बिखरती हुई तुम को
कैसा लगा होगा तुम्हे
जब तुम्हारे ही राम ने
तुम्हारी निष्ठा ,तुम्हारे विश्वास और समर्पण पर
प्रश्नचिन्ह लगा ,तुम्हे अग्निपरीक्षा का आदेश दिया होगा
सती पत्नी ने अपने पति के ही दिए हुए विष का घूँट
 आखिर  कैसे पिया होगा
अरे इससे तो अच्छा था वो रावण
जो तुम्हारे सतीत्व के तेज से सिहर गया
तुम्हारी उपस्थिति मात्र से
जिसके अन्दर का रावण मर गया
वो जीतना चाहता था तुम्हे ,भीतर से
इसीलिये उस कथित राक्षस ने तुम्हे नहीं छुआ
और तुम्हारे राम को इसका आभास तक नहीं हुआ
हाँ, तुम्हारे पति राम
जिनके लिए तुमने पतिव्रत रीत निभाई
जिनकी पीर बांटने तुम बन बन चली आयी
तुम्हारे उन्ही पतित पावन राम ने
अहिल्या को तो पाषाण से स्त्री बना तार दिया
और अपनी ही स्त्री को शंका के तीर चला
जीते जी मार दिया
काश एक बार, सिर्फ एक बार
उस दिव्य दृष्टा ने
तुम्हारी आत्मा में झाँका होता
तन के बजाय ,तुम्हारे मन को आंका होता
तो जो हुआ वो न होता
रामायण का एक अध्याय ,बदला हुआ होता
हे सीता मैं जानती हूँ
 तुम्हारी पीड़ा,तुम्हारा संताप
 और पहचानती हूँ 
 अन्दर तक टूट टूट कर बिखरती  हुई तुम को .................









सीता की अग्निपरीक्षा )
(राम का दृष्टिकोण)
हे सीता 
मैं जानती हूँ तुम्हारी पीड़ा ,तुम्हारा संताप 
और पहचानती हूँ 
अन्दर तक टूट टूट कर बिखरती हुई तुम को 
कैसा लगा होगा तुम्हे 
जब तुम्हारे राम ने 
तुम्हारी निष्ठा,विश्वास और समर्पण पर प्रिश्न चिन्ह लगा 
तुम्हे अग्नि परीक्षा का आदेश दिया होगा 
तुमने तो परीक्षा दी 
और उसमे खरी भी उतरीं 
साथ ही पूरा कर दिया एक अधूरे काम को 
दे दिया एक और बनवास अपने पति राम को 
पत्नी विहीन,प्रियाविहीन राम 
ये बनवास तो जीवन भर उनके साथ रहा 
आखिर क्या उनके हाथ रहा 
तुम जानती हो 
जिन्होंने तुम्हारी परीक्षा ली 
वो तुम्हारे राम नहीं थे 
वो तो धोबी के राम थे 
अयोध्या की प्रतिष्ठा व मान थे 
क्या होगी वो परिस्थिति 
कैसी रही होगी उनकी मनस्थिति 
जब उन्हें चुनना पड़ा होगा 
राजा और पति में से एक को 
एक तरफ फ़र्ज़ एक तरफ धर्म 
शायद उन्हें धर्म से बड़ा लगा होगा फ़र्ज़ 
इसीलिये उतार दिया राजा होने का क़र्ज़ 
पर तुम्हारे पति राम 
वो तो सुलगते रहे सारा जीवन एक अग्नि में 
पश्चाताप की अग्नि 
सहते रहा विरह का ताप 
करते रहे सीते सीते जाप 
जिसे ढूँढने मैं लगा दिया जीवन 
उसी के बिना जीवन 
कितना जला होगा उनका मन 
तुम सती थीं तो उनमे भी नहीं था कम सत
उन्होंने नहीं तोडा एक पत्नी व्रत 

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

उसी  से   दोस्ती  भी   है   उसी  से  दुश्मनी  भी  है
वहीँ  पर  आब है  लेकिन   वहीँ  पर  तिश्नगी भी है

कभी वो जाएगा घर क्या भटकना जिसकी फितरत है
सफ़र में आबले तो  है  सफ़र  से  आशिकी  भी  है

उसे  मंदिर में क्यूँ  ढूंढें ,उसे मस्जिद में  क्यूँ  ढूंढें   
जहाँ पर  आस्था  होगी  वहीँ  पर  बंदगी    भी   है

ये  माना  रात  काली  है अँधेरा उसकी  किस्मत  है
अँधेरे के   ही  घूंघट  में  छिपी  पर  रौशनी   भी  है

उसे क्या नाम दूं आखिर ,सनम,हमदम या हरजाई
उसी पे  जान  देती   हूँ  उसी   से  ज़िन्दगी  भी  है

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

पेड़ 

वो एक पेड़ था
फूल और पत्तों से हरा भरा
पेड़ दिन रात यही  सोचता  कि
कब से, मैं ऐसे ही खड़ा हूँ
एक ही जगह जड़ा हूँ
ना आगे जा पाता  हूँ न पीछे
ये भी नहीं देख पाता
की हर पल चलने वाली ये सड़क
जाती कहाँ है ?
मुझ से गुज़र कर चली जाती है
इठलाती,बलखाती,मुहं चिढाती
में तो इसके साथ   चल भी नहीं पाता
बस किनारे से ही देखता रहता हूँ
एक टक,एक ही जगह से,
विवश जो हूँ
एक दिन ,एक  आदमी  आया
बड़ी सी ट्रक लेकर
पेड़ को कटवा कर उस पर  लाद दिया
पेड़ बड़ा  खुश हुआ
चलो,अब मेरे बंधन कटे
अब मैं  भी घूम घूम कर
सारी दुनिया देखूँगा
एक जगह खड़े रहने पर
विवश न रहूँगा
ट्रक सड़क पर चलने लगी
पेड़ गुनगुनाने लगा
आज़ादी के गीत गाने लगा
सड़क को सुनाने लगा
राह में और भी पेड़ खड़े थे
वो उसे देख हसने लगे
आज वो पेड़ और भी दुखी है
क्यूंकि आज वो एक जगह
 खड़ा नहीं , पड़ा है
एक धनाढ्य के
दमघोटू ,बंद कमरे में सोफा बनकर .......

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

मेरी कविता ,मेरी पेंटिंग 
रुकी रुकी साँसों में
झुकी झुकी आँखों में
एक बूँद पानी को
अब तलक भी प्यासी है
जम गयी उदासी है

रिश्तों के शीशे भी
 धुन्धलाये लगते हैं
आँखों की कोरों से
सोग बन छलकते हैं
क्या है ये उलझन
ये कैसी बदहवासी है

कौन किधर खो गया
 ये रस्ता  क्यूँ सूना है
पत्तों पे शबनम का
बोझ हुआ दूना है
हो हल्ला यूँ ही हुआ
बात तो ज़रा सी है

शनिवार, 25 सितंबर 2010

गुनगुनी शामों को मुठ्ठी में  दबाये
फिर उन्ही  यादों के पंछी लौट आये

एक  इक कर  जोड़ता है  फिर जतन  से
काट कर जो पर शिकारी ने  उड़ाये

कह दिया नादान  लहरों  ने उन्ही  को
वो जो तूफानों से  कश्ती लेके   आये

भर रहा है दोस्ती का दम वो अब तक
कल मेरे ख़त फाड़ कर जिसने जलाये

जब  कभी  भी हसरतों   ने  सर  उठाया 
मुझको तुम पूछो न कितना याद आये 

शनिवार, 4 सितंबर 2010

कट  गयी  है उम्र लेकिन ,ज़िन्दगानी  रह   गयी
अंत पर तो आ गए, लेकिन  कहानी रह  गयी

कब, किधर, कैसे, कहाँ ,छूटी वो मुझसे   क्या पता
बीच बचपन  और  बुदापे   के , जवानी  रह गयी

बीतेते  ही   जा   रहे   हैं , मौसमों    के    काफिले
पर कहीं कुछ   दूर पर, वो रुत  सुहानी  रह गयी

सोचते   ही  सोचते ,   सदियाँ    गुज़रती    जाएँ    है
और  इन्ही सदियों में उलझी, इक   रवानी रह गयी

बेमुरब्बत था बड़ा  वो , छोड़  कर  मुझको  गया
वक़्त तो लौटा नहीं, उसकी  निशानी   रह  गयी

क्या कहूं ,कितना कहूं ,किससे कहूं ,कैसे  कहूं
बांटने को  ग़म  मेरे, मैं   ही   दिवानी  रह   गयी

बुधवार, 18 अगस्त 2010

सिलसिला
कभी कभी मन करता है ,बच्चा बन जाऊं
रख दूं  अपनी  बुद्धि   किसी   ताक   पर
बंद कर दूं अपनी सोच समझ के कटोरदान को  बहुत  कस के
फिर अपने बालपन के पंख थाम उड़ने लगूँ
उड़ती जाऊं ,उड़ती जाऊं , उड़ती जाऊं
उड़ते उड़ते थक जाऊं
तो भी न रुकूं
धरती पुकारे तो भी न झुकूं
सूरज कि मुहं  दिखाई  करुं
चंदा कि चांदनी अपनी अंजुरी में भरूं
बादलों का तकिया बना सो जाऊं
और मां ढूँढने आये तो उसी कि आड़ में हो जाऊं
पर मां ,कहाँ है मां ?
क्यों मां अब मुझे ढूँढने नहीं आती
क्यों मुझे खाने, पीने ,सोने ,जागने का
वक़्त नहीं बताती
क्यों मेरा भला बुरा
नहीं जताती
क्या मेरा भला चाहने की
उसकी ज़िम्मेदारी अब समाप्त हो गयी है
या अब ये एक चाहत बनकर
उसकी खामोशी में ही व्याप्त हो गयी है
वैसे भी ज़िम्मेदारी कभी समाप्त नहीं होती
ये सिर्फ स्थान्तरित होती है
एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को
एक सीढ़ी  से दूसरी सीढ़ी को
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को
माँ से बेटी को
अचानक बहुत ज़ोर की आवाज़ हुई
और मेरे पर सिमट गए
मेरे ख़यालात मुझसे ही लिपट गए 
देखा
सोच समझ का कटोरदान
अपनी ही जद्दोजहद से खुल चुका था
और मेरे अन्दर भी
उलझन का जो काला पन था
वो धुल चुका था
मेरे सामने मेरे 'पर' भी थे ,उड़ान भी
और दूर तक फैला आसमान भी
जहां मुझे उड़ना तो था
पर ज़िम्मेदारियों के उड़न-पथ से गुज़र के
क्योंकि मेरे सामने थे
कुछ और 'पर'
वक़्त कि नन्ही कोपलों जैसे ,
अधखुले ,आने वाली नस्लों के 'पर'
मुझे उन्हें खोलना था
उनमें शक्ति और हौसला भरकर
उन्हें परवाज़  देनी थी
आने वाली कल कि संभावनाओं को
आवाज़ देनी थी .
यही नियति है
यही है प्रकृति का नियम
मैं एक 'आज' हूँ
दो कलों को जोड़ती हुई
बीता कल और आने वाला कल
ये 'आज' भी ' कल' बन जाएगा
फिर कोई किसी नए पर को सह लाएगा
उड़ने के गुर सिखाएगा
और ये सिलसिला चलता रहेगा .

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

वो एक नदी थी
शांत,निश्चिन्त,निर्विघ्न ,निर्विकार
अपनी  संवेदनाओं   को   समेटे
अपनी  संभावनाओं को  सहेजे
अनवरत ,अविरल ,बहती हुई
आत्मसंतोष की कथा कहती हुई
एक दिन सागर ने उसे पुकारा
आओ,मेरे पास आ जाओ
मैं  तुम्हारी तन्हाई दूर करूंगा
तुम्हे विस्तार ,फैलाव ,विशालता
और गहराई दूंगा
तुम्हारे अस्तित्व को निखारूंगा 
कुछ  और  सवारूंगा  
नदी को सागर कि बात भा गयी
वो सागर के पास आ गयी
सागर ने उसे अपने में समा लिया
कुछ देर के लिए उसकी लहरों से खेला
फिर उसे अपने में मिला लिया
अपने जैसा बना लिया
कुछ और फैल गया सागर
हो गया कुछ और विशाल
कुछ और विस्तारित
और नदी हो गयी अस्तित्वविहीन.
विस्तार, फैलावऔर गहराई तो  
सागर ने स्वयं रखी   ,अपने लिए 
और नदी को दे दी
बचैनी ,उफान और
कभी न ख़त्म होने वाली हलचल .



सोमवार, 16 अगस्त 2010

वो   भक्ति    है    ,वो    शक्ति      है ,
,वो  ममता  है  ,वो      क्षमता    है ,
वो जग  की    जीवन   जननी     है ,
उस पर हर युग आ   थमता    है
उसकी     ही       ऊँगली        पकड़ 
सकल जग आगे   बढता आया है   
फिर क्यूँ  बिन  जन्मी   नारी  पर
हर समय    मौत   का    साया   है 
      

रविवार, 15 अगस्त 2010

  

                                                     राधा   की निष्ठा कान्हा के प्रति  



                                                                                                                                                                                                                
मेरी  अपनी   निष्ठा   है  ,उनका  अपना    वादा     है
मेरा है सर्वस्व समर्पित ,उनका  आधा    आधा    है

मेरी   यादें   हैं   सिंदूरी   , उनके     सतरंगी     सपने
मेरे तो बस एक  वही  हैं ,उनके   सारे  हैं     अपने 
उन पर जीवन वारूँगी बस अपना यही    इरादा है
मेरा है सर्वस्व समर्पित उनका  आधा    आधा    है


मंदिर कि घंटी को सुन के, ध्यान करूंगी उनका ही
गाऊँ चाहे गीत कोई भी, होगा उनकी धुन  का   ही
तन उनका चाहे चंचल हो मन  तो  सीधा  सादा  है
मेरा है  सर्वस्व   समर्पित ,उनका   आधा   आधा   है

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

ये   सोचूँ  ...        
दिल-ए-बैचैन को कैसे   मिले    आराम    ये      सोचूँ
कि मैं कैसे  उसे  सोचूँ  न   सुब्हो  - शाम ,  ये    सोचूँ

अभी तो  चाहतों  की  सुब्ह   नें  अंगड़ाई   ही   ली   है
अभी से   चाहती  हूँ किस लिए मैं   शाम,   ये    सोचूँ

कहाँ से आयी हैं ये और   कहाँ ले    जायेंगी   मुझको
महज़  हैं हसरतें  या  फ़िक्र   का   पैग़ाम ,  ये   सोचूँ

हज़ारों ख्वाहिशों के फूल  हों औ उसका ग़म  भी  हो
तो क्यूँ उसके ही ग़म का लूं मैं दामन थाम,ये सोचूँ

मोहब्बत से  तो वैसे भी मेरी  कुछ   दुश्मनी  सी  थी
मगर इसको ही मुझसे पड़  गया क्या काम, ये सोचूँ

बुधवार, 11 अगस्त 2010

 राज़ की बातें
राज़  की  बातें   हैं  तुमसे   कह  रही   हूँ
सुन सकोगे मैं तो  कबसे  सह     रही   हूँ

एक मुकम्मल सी ईमारत दिख  रही   हूँ
पर  कहीं  भीतर ही  भीतर     ढह  रही  हूँ

है  हवाओं की   ज़मीं   बादल   की  छत है 
मुद्दतों से जिस    मकां  में   रह   रही   हूँ

न  कोई  पतवार  जिसकी  न   ही    माझी
इक   उसी  नैया  की  मानिंद  बह रही  हूँ

ओढ़ कर  गहरे तिमिर  की   एक   चादर  
रौशनी को खुद हवन सी   दह    रही    हूँ

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

......




बात तो ज़रा सी ... 

मैं बूँद हूँ फिर भी प्यासी हूँ

सहमी सी   एक    उदासी    हूँ

अनलिखी एक कविता हूँ मैं

बस इतनी बात ज़रा सी  हूँ



मैं बिन सीपी  का  मोती  हूँ

दीपक के बिना एक जोती हूँ

है पास नहीं कुछ   भी  मेरे

फिर भी मैं हर पल खोती हूँ

जिसको चंदा सहला न सके

मैं     ऐसी      पूरनमासी      हूँ



जो सपने पूरे  हों  न   कभी

मैं  उन सपनों का  घेरा   हूँ

जो रात से  ज्यादा  काली  हो

मैं  उस सुबह   का   चेहरा    हूँ

जो किसी भी लब पे सज न सके

मैं  ऐसी  एक  दुआ  सी       हूँ
याद  आता  है ...... 

मुझको   मेरा   घर    आँगन     याद       आता       है
कबका   बिछड़ा    एक    सावन      याद     आता     है
जिसकी   ओट   से    जाने    कितने    सपने      देखे
नन्हा   प्यारा   वो     बचपन    याद        आता        है

चूल्हे का वो धुआं ,उबलती  दाल ,उफनता   दूध      कहीं
अलसाई छत  पर सुस्ताती  छाँव,   मचलती  धूप  कहीं 
मन  में    ठहरा     वो      मौसम       याद      आता     है

दीवारों पर नाम  सहेलियों  के   लिख  रोज़  बदल    देना
कभी खेलना हंस-हंस कर तो कभी ठुनक कर चल  देना 
रिश्तों    का      न्यारा      बंधन         याद      आता       है


चौराहे    पर    बेर    बेचने    वाली    वो      बुदिया     नानी 
सुबह शाम आँगन के नल से टप टप टप करता पानी
सुधियों     का      उजला      दर्पन      याद       आता      है

रविवार, 8 अगस्त 2010

रौशनी    की   चाह  
ज़िन्दगी में हर  किसी  को  रौशनी की  चाह   है
फिर जला हो घर या दीपक ये किसे परवाह है .

है बदी जितनी  लिखी  है  रौशनी    उतनी  मिले ,
रात चमकीली अगर तो दिन बहुत ही स्याह है .

मोंम  तो पिघला किये  है लौ  मगर  बुझती   नहीं,
 जो किसी  की है ख़ुशी वो ही किसी की आह है .

राह  फूलों  से  सजी  हो  या   डगर   काँटों     भरी ,
जा मिले मंजिल तलक  जो   बस वही तो राह है