क्या करूँ मैं कि
दिल से सुकूँ आ मिले
कि शुरू हों कोई तो
नए सिलसिले
ज़िन्दगी जा रही,कुछ
ना कर पा रही
कैसे पकडूं मैं जाते
हुए हौसले
क्या था करना मुझे
क्या मैं करती रही
खुद से खुद को ही
देती रही फासल
रात जाती भी है
सुबह आती भी है
मेरे अंदर जो है रात
वो तो ढले
एक मुसलसल सफ़र और ना
साथी कोई
खोये रस्ते में ही
सारे जो भी मिले
ज़िंदगी भी अजब एक
कहानी है ये
उतनी खुशियाँ भी
देती है जितने गिले
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