एक अनलिखा ख़त मेरा मन
एक अनकही चाहत मेरी
वेदनाओं से मिले तसल्ली
बेचैनी ही राहत मेरी
अंदर हलचल बाहर मौन
दिल की बातें जाने कौन
भीटर किसने कब झाँका है
बाहर से ही बस आँका है
जितना सोंचू उतनी ही
होती है रूह हताहत मेरी
वेदनाओं से मिले तसल्ली
बचैनी ही राहत मेरी
अरमानों के दरवाजों पर
पहरा देती एक उदासी
शामों के सुरमई रंग को
गहरा देती बात ज़रा सी
रातों को अक्सर हो जाती
नींदे भी है आहत मेरी
वेदनाओं से मिले तसल्ली
वेदनाओं से मिले तसल्ली
बचैनी ही राहत मेरी
बहुत ही खूबसूरत शब्दों का संगम ...बधाई इस बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये ।
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद ,भास्कर जी ....
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