मैं अपनी राह चलती हूँ मैं अपनी राह पे चल के
करूंगी तय सफर अपना सफर की आग में जल के
ये माना है डगर मुश्किल मगर मैं क्यूँ भला ठहरूं
महकते फूल भी कितने यहां काँटों में ही पल के
मैं चुप हूँ या परेशां हूँ की सोयी हूँ यक़ीं ये है
उठूँगी जल्द ही इस नींद से आँखों को मैं मल के
कि कहना और सुनना ही किसी से क्यों ज़रूरी हो
वो कैसा ग़म ख़ुशी भी क्या कि जो आँखों से न झलके
मैं अपने आप में इस आज के एक पल में जीती हूँ
मुझे क्यों फ़िक्र हो दामन में क्या होगा भला कल के
अच्छी लगी यह कविता। मन के गहरे भाव को सामने किया गया है, ऐसा लगता है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भास्कर जी ,
जवाब देंहटाएंकवितायें तो मन के भाव ही समेटे होती हैं
शुक्रिया भास्कर जी ,
जवाब देंहटाएंकवितायें तो मन के भाव ही समेटे होती हैं