वो कभी थरथरा के जलती है
तो कभी फड़फड़ा के
कभी भरभरा के जलती है
तो कभी कंपकंपा के
पर जलती है उसी आन बान और शान से
जबकि उसे भी मालूम है की वो
पिघल पिघल कर ख़त्म हो रही है
उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा
और तब उसके साथ साथ
उसके चारों तरफ के लोग भी अँधेरे में डूब जाएंगे
पर वो कुछ नहीं कर सकती
ना जलना छोड़ सकती है
ना पिघलने को रोक सकती है
क्योंकि जलना उसका धर्म है
और पिघल कर ख़त्म हो जाना उसकी नियति
एक मोमबत्ती और कर भी क्या सकती है
तो कभी फड़फड़ा के
कभी भरभरा के जलती है
तो कभी कंपकंपा के
पर जलती है उसी आन बान और शान से
जबकि उसे भी मालूम है की वो
पिघल पिघल कर ख़त्म हो रही है
उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा
और तब उसके साथ साथ
उसके चारों तरफ के लोग भी अँधेरे में डूब जाएंगे
पर वो कुछ नहीं कर सकती
ना जलना छोड़ सकती है
ना पिघलने को रोक सकती है
क्योंकि जलना उसका धर्म है
और पिघल कर ख़त्म हो जाना उसकी नियति
एक मोमबत्ती और कर भी क्या सकती है
क्या खूब लिखा है..!! लाजवाब..!!!
जवाब देंहटाएंवक़्त मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयें|
http://sanjaybhaskar.blogspot.in
बहुत शुक्रिया संजय भास्कर जी
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया संजय भास्कर जी
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया संजय भास्कर जी
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