दिल-ए-बैचैन को कैसे मिले आराम ये सोचूँ
कि मैं कैसे उसे सोचूँ न सुब्हो - शाम , ये सोचूँ
अभी तो चाहतों की सुब्ह नें अंगड़ाई ही ली है
अभी से चाहती हूँ किस लिए मैं शाम, ये सोचूँ
कहाँ से आयी हैं ये और कहाँ ले जायेंगी मुझको
महज़ हैं हसरतें या फ़िक्र का पैग़ाम , ये सोचूँ
हज़ारों ख्वाहिशों के फूल हों औ उसका ग़म भी हो
तो क्यूँ उसके ही ग़म का लूं मैं दामन थाम,ये सोचूँ
मोहब्बत से तो वैसे भी मेरी कुछ दुश्मनी सी थी
मगर इसको ही मुझसे पड़ गया क्या काम, ये सोचूँ
मोहब्बत से तो वैसे भी मेरी कुछ दुश्मनी सी थी
जवाब देंहटाएंमगर इसको ही मुझसे पड़ गया क्या काम, ये सोचूँ
क्या बात है अर्चना जी वाह...वा...इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल कीजिये...हर शेर बेमिसाल है...
नीरज