राज़ की बातें
राज़ की बातें हैं तुमसे कह रही हूँ
सुन सकोगे मैं तो कबसे सह रही हूँ
एक मुकम्मल सी ईमारत दिख रही हूँ
पर कहीं भीतर ही भीतर ढह रही हूँ
है हवाओं की ज़मीं बादल की छत है
मुद्दतों से जिस मकां में रह रही हूँ
न कोई पतवार जिसकी न ही माझी
इक उसी नैया की मानिंद बह रही हूँ
ओढ़ कर गहरे तिमिर की एक चादर
रौशनी को खुद हवन सी दह रही हूँ
ख़ूबसूरत आगाज़ ,ख़ूबसूरत ब्लॉग ,ख़ूबसूरत कलाम . .
जवाब देंहटाएंहै हवाओं की ज़मीं बादल की छत
जवाब देंहटाएंमुद्दतों से जिस मकां में रह रही हूँ
क्या कहूँ...बेजुबान कर दिया आपने...ऐसा शेर कोई उस्ताद ही लिख सकता है...इस नायाब ग़ज़ल पर मेरी दिली दाद कबूल करें...
नीरज
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जवाब देंहटाएंवाह ! हर शेर कमाल का ! वाकई निःशब्द कर दिया आपने !
जवाब देंहटाएंओढ़ कर गहरे तिमिर की एक चादर
रौशनी को खुद हवन सी दह रही हूँ
बहुत अच्छा लगा ये शेर...! आभार !!
शुक्रिया लता,नीरज जी आप दोनों की सराहना का बहुत बहुत शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंनरेन्द्र जी आपको ग़ज़ल अच्छी लगी बहुत बहुत शुक्रिया..
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