शनिवार, 16 मई 2020

कितनी बार समेटूँ ख़ुद को बिखरुं कितनी बार 
कहीं हौसला छूट न जाए कहीं न जाऊँ हार

तूफ़ानों से लड़ कर नईया बहती रही मगर
टूटी आकर वहीं जहां वो लगने को थी पार

कड़ी धूप में चलकर जलकर करती रही सफ़र
शाम ढले जब मंज़िल पाई बंद मिले सब द्वार

तुम्हे दिए थे वक़्त के ख़त कुछ प्यार के पन्नो वाले
वक़्त तो लौट नहीं सकता लौटा दो मेरा प्यार

साथ थे तुम, बस तुम को देखा देख नहीं कुछ पाई
कहते हैं सब प्यार में सुंदर लगता है संसार

कैसी राहें, सफ़र था कैसा कुछ भी याद नहीं है
चलो जहां से शुरु किया फिर वहीं चलें इक बार

अर्चना जौहरी
जीवन का सम्मान थे मेरे
इस दिल का अरमान थे
क्या बोलूं,मैं जिस्म थी केवल
जिस्म की तुम ही जान थे
जीवन की हर धूप छांव में
 हाथ पकड़ हम सतत चले
मिलकर नीड़ बसाया था
बस चाहा उसमें प्रेम पले
सोच रही थी जाकर तुमने
मुझको क्यों बेजान किया
और तो कुछ न मांगा था क्यों
इस सुख से अनजान किया
पर देखा तुम लेके नहीं
हां,देकर ही कुछ चले गए
प्यारी सी इन दो परियों में
ख़ुद  को बसा के चले गए
करतीं ये तुम जैसी बातें
तुम  जैसे इनके अंदाज़
उनमें तुम अब तक जीवित हो
हर पल खुलता है ये राज़
देख नए नित रूप तुम्हारे
मंत्रमुग्ध सी हो जाती हूँ
जाकर भी तुम साथ हमारे
इन  ख़ुशियों में खो जाती हूँ
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अर्चना जौहरी
तो क्या हुआ हम घरों में हैं
तो क्या हुआ सड़कें खाली हैं
तो क्या हुआ दफ़्तरों में काम नहीं हो रहा
तो क्या हुआ हम आपस मे मिल नही रहे
परिंदे तो आकाश में उड़ रहे हैं
हवा चल रही है
नदियां बह रही हैं
सूरज रोज़ निकल रहा है
चांद अपनी चांदनी बिखेर रहा है
प्रकृति पनप रही है
समय का चक्र घूम रहा है
शाश्वत हम नहीं,शाश्वत प्रकृति है
और जब तक प्रकृति है,जीवन है
आशा है,उम्मीद है
रास्ते हैं
पर क़दम सहमे हुए
अपने हैं
पर फ़ासलों पर
सपनें हैं कल के
पर कल अभी दूर है
मृग-मरीचिका सी ज़िंदगी
अपने पीछे दौड़ा तो रही है
पर नज़र नहीं आ रही
मास्क के पीछे
लबों पे शब्द ठिठक कर रह गए हैं
मुस्कानें छुप गई हैं
अब बात करनी होगी
आंखों से
मुस्कुराना होगा
हौसलों को
सहमी, ठिठकी और डरी ज़िन्दगी
आख़िर कब तक
यूँ बुझी बुझी रह पाएगी
कुछ तो करना होगा
नया
गति बांधनी होगी जीवन मे
फिर से
क्योंकि ठहरे हुए तो पानी पर भी
काई जम जाती है

अर्चना जौहरी

गुरुवार, 14 मई 2020

खुद लिक्खूं अपनी मैं कहानी अभी तो ये हालात नहीं
और कोई क्या जाने मुझको किसी के बस की बातनहीं

मेरी आँखें  मेरे सपने  मेरी रातें  मेरी  नींद
मेरा चैन मेरी बेचैनी किसी के ये जज़्बात नहीं

जिन राहों पे सफर है मेरा,मेरी अपनी राहें हैं
कंकड़ पत्थर धूल सभी कुछ फूल मुझे सदमात नहीं

गरल को भी मैं अमृत समझूँ गर मेरे हिस्से का हो
और के हिस्से का अमृत भी गरल लगे सौग़ात नहीं

सांस सांस लम्हा लम्हा तो मैंने ख़ुद को लिक्खा है
कहां समेटूँ किन पन्नों पर धोए जिन्हें बरसात नहीं

अर्चना जौहरी
हमेशा ही रही हूँ ख़ुद से मैं एक अजनबी बन के
प मन करता है अब रह जाऊँ बस अपनी सखी बन के

कभी झरना कभी बूंदें कभी सागर सी लहराऊँ
बुझाने प्यास सबकी रह गयी मीठी नदी बन के

हंसू अपने ही संग खेलूं सुनाऊं खुद को मैं किस्से
कभी रूठूँ कभी खिल जाऊँ मैं अल्हड़ हंसी बन के

वो बातें जो बरस बरसों में हो न पायीं हैं अब तक
उन्हें लम्हों में मैं जी लूँ खुशी की इक सदी बन के

मिले मुझको नहीं तुम ज़िन्दगी में क्यों करूं शिकवा
मेरे भीतर तो तुम ही रह रहे हो ज़िन्दगी बन के

अर्चना जौहरी

शनिवार, 16 नवंबर 2019

कैसे जियें ये जिंदगी,  कुछ भी पता नहीं
वहशी ये हैं या आदमी ,कुछ भी पता नहीं

आती रही है आएगी हर दिन नई सुबह
क्या मिट सकेगी तीरगी, कुछ भी पता नहीं

हर दिन नया फैशन,नए जलवे, नये है रूप
खोयी कहाँ है सादगी,  कुछ भी पता नहीं

आँखों की कोर पे ये जो ठहरा हुआ है अश्क़
यादें हैं या है बेबसी,   कुछ भी पता नहीं

उसने  मेरे ग़मों को हंसी में उड़ा दिया
वो प्यार था या दिल्लगी,कुछ भी पता नहीं