शनिवार, 16 मई 2020

जीवन का सम्मान थे मेरे
इस दिल का अरमान थे
क्या बोलूं,मैं जिस्म थी केवल
जिस्म की तुम ही जान थे
जीवन की हर धूप छांव में
 हाथ पकड़ हम सतत चले
मिलकर नीड़ बसाया था
बस चाहा उसमें प्रेम पले
सोच रही थी जाकर तुमने
मुझको क्यों बेजान किया
और तो कुछ न मांगा था क्यों
इस सुख से अनजान किया
पर देखा तुम लेके नहीं
हां,देकर ही कुछ चले गए
प्यारी सी इन दो परियों में
ख़ुद  को बसा के चले गए
करतीं ये तुम जैसी बातें
तुम  जैसे इनके अंदाज़
उनमें तुम अब तक जीवित हो
हर पल खुलता है ये राज़
देख नए नित रूप तुम्हारे
मंत्रमुग्ध सी हो जाती हूँ
जाकर भी तुम साथ हमारे
इन  ख़ुशियों में खो जाती हूँ
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अर्चना जौहरी

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