शनिवार, 16 मई 2020

रास्ते हैं
पर क़दम सहमे हुए
अपने हैं
पर फ़ासलों पर
सपनें हैं कल के
पर कल अभी दूर है
मृग-मरीचिका सी ज़िंदगी
अपने पीछे दौड़ा तो रही है
पर नज़र नहीं आ रही
मास्क के पीछे
लबों पे शब्द ठिठक कर रह गए हैं
मुस्कानें छुप गई हैं
अब बात करनी होगी
आंखों से
मुस्कुराना होगा
हौसलों को
सहमी, ठिठकी और डरी ज़िन्दगी
आख़िर कब तक
यूँ बुझी बुझी रह पाएगी
कुछ तो करना होगा
नया
गति बांधनी होगी जीवन मे
फिर से
क्योंकि ठहरे हुए तो पानी पर भी
काई जम जाती है

अर्चना जौहरी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें